lunedì 15 ottobre 2018

क्या कांग्रेस ने RSS और बीजेपी को दिया हिंदुओं का झंडाबरदार बनने का मौक़ा

सत्तर के दशक तक भारतीय जनसंघ की सबसे बड़ी शिकायत थी कि उसे भारतीय राजनीति में अछूत क्यों समझा जाता है?
साल 1967 के जनसंघ के कालीकट सम्मेलन में पार्टी के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने बहुत दुखी हो कर कहा था, "भारत का प्रबुद्ध वर्ग छुआछूत को बहुत बड़ा पाप मानता है, लेकिन राजनीतिक जीवन में भारतीय जनसंघ के साथ बरते जाने वाले छुआछूत को वो गर्व की बात समझता है."
सवाल उठता है कि दशकों तक भारत के राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के साथ राजनीतिक सहयोग करने में क्यों हिचकिचाते रहे?
भारतीय जनता पार्टी पर बहुचर्चित किताब 'द सैफ़रन टाइड - द राइज़ ऑफ़ द बीजेपी' लिखने वाले किंग्शुक नाग बताते हैं, "शायद इसकी सबसे बड़ी वजह है भारतीय जनता पार्टी का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की अवधारणा है. साल 1998 के बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में कहा गया था कि वो एक राष्ट्र, एक लोग और एक संस्कृति के प्रति कटिबद्ध है. बहुत से लोग बीजेपी की इस विचारधारा से अपने को नहीं जोड़ पाते, क्योंकि उन्हें लगता है कि बीजेपी कहीं न कहीं इस बात को रेखांकित करना चाहती है कि भारत एक संस्कृति वाला देश है."
अस्सी के दशक में इस सोच को तब और बल मिला जब संघ परिवार की ओर से एक नारा उछाला गया, "गर्व से कहो हम हिंदू हैं."
इस वाक्य का सबसे पहले इस्तेमाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने किया था.
आलोचकों ने सहज ही इसकी तुलना जवाहरलाल नेहरू से की जो भारत को धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर ले जाना चाहते थे, जहाँ हर धर्म और जाति के लोगों को बराबर का अधिकार हो.
आज़ादी के बाद भारत का पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा मध्य प्रदेश के शहर जबलपुर में हुआ था जहाँ उस समय कांग्रेस की सरकार थी.
नेहरू इससे बहुत आहत हुए थे और जब वो दंगो के बाद भोपाल गए थे तो उन्होंने अपनी ही पार्टी वालों पर तंज़ कसा था कि वो दंगों के दौरान अपने घरों में छिपे क्यों बैठे रहे?
नेहरू भले ही धर्मनिपेक्षता के बहुत बड़े पैरोकार रहे हों, लेकिन उनकी पार्टी के कई बड़े नेताओं की सहानुभूति दक्षिणपंथी तत्वों के साथ रही.
जिन्ना की मुस्लिम लीग की स्वीकार्यता इसलिए बढ़ी, क्योंकि उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया कि कांग्रेस तो सिर्फ़ हिंदू हितों की ही बात करती है, हालांकि ये बहुत हद तक सच नहीं था.
कांग्रेस ने हिंदू प्रतीक के 'वंदे मातरम' को स्वतंत्रता सेनानियों का गीत बनाया, जिसे बंकिम चंद्र चटोपाद्याय के उपन्यास 'आनंदमठ' में हिंदू विद्रोहियों को मुस्लिम शासकों के ख़िलाफ़ गाते हुए दिखाया गया है.
महात्मा गांधी ने भी रामराज्य की बात की और उनका सर्वप्रिय गुजराती भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' था.
नेहरू मंत्रिमंडल के कई सदस्य जैसे मेहरचंद खन्ना और कन्हैयालाल मुंशी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास करते थे.
और तो और भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य थे.
साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद किए गए एक अध्ययन में ये पाया गया कि केएम मुंशी के उपन्यासों की लोकप्रियता ने जिसका सार सोमनाथ के मंदिर पर महमूद गज़नी का हमला था, राज्य में हिंदुत्व की भावना को बढ़ावा दिया.
दक्षिणपंथ की तरफ़ झुकाव रखने वालों में 1950 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने पुरुषोत्तम दास टंडन और भारत के पहले गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल का भी नाम लिया जाता है.
महात्मा गांधी की हत्या से पहले सरदार आरएसएस के बारे में सकारात्मक राय रखते थे.
उनकी नज़र में इस संगठन ने पाकिस्तान से आए शर्णार्थियों को नए सिरे से बसाने और उन्हें राहत सामग्री पहुंचाने में बहुत योगदान दिया था.
सरदार पटेल के कहने पर ही गुरु गोलवलकर ने कश्मीर जाकर महाराजा हरि सिंह पर भारत में विलय करने के लिए ज़ोर डाला था.
उत्तर प्रदेश के पूर्व गृह सचिव रहे राजेश्वर दयाल अपनी आत्मकथा 'अ लाइफ़ ऑफ़ आवर टाइम्स' में लिखते हैं, "जब मैंने पश्चिम उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने में गुरु गोलवलकर की भूमिका का सबूत पंतजी के सामने रखा तो उन्होंने न सिर्फ़ गोलवलकर को गिरफ़्तार करवाने से इनकार किया, बल्कि उन्हें इस बारे में बता भी दिया और गोलवलकर तुरंत प्रदेश से बाहर चले गए."
साल 1962 के चीन युद्ध में संघ के कार्यकर्ताओं ने सिविल डिफ़ेंस के काम को अपने हाथों में ले लिया था, जिससे ख़ुश हो कर 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में उन्हें भाग लेने का अवसर दिया गया था.
यहाँ पर इस सबका ज़िक्र करने का मक़सद यह है कि धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाली कांग्रेस पार्टी भी हिंदुत्व के बुख़ार से अछूती नहीं रही है.
कुछ विश्लेषक तो यहाँ तक मानते हैं कि वो तब तक लगातार सत्ता में रही जब तक हिंदू वोट उसके साथ रहा.
जब हिंदुओं को लगा कि कांग्रेस ने हिंदू हितों पर ध्यान देना कम कर दिया है तो उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया और उसका विकल्प तलाशने लगे.
पचास के दशक से ले कर 1967 तक हिंदू वोटों पर कांग्रेस का एकक्षत्र राज रहा जिसकी वजह से उसे सत्ता हासिल करने में कोई गंभीर चुनौती नहीं मिली.
साल 1975 में जब इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लगाई तो संघ परिवार को फूलने फलने का मौका मिल गया.
इमर्जेंसी के दौरान संघ के हज़ारों कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया.
इसके बावजूद उन्होंने इंदिरा गांधी सरकार के ख़िलाफ़ अंडरग्राउंड आंदोलन चलाया.
जेल में उन्हें अन्य विपक्षी नेताओं के साथ रहने का मौक़ा मिला, जिससे उनकी सोच को ख़ासा विस्तार मिला.
इमर्जेंसी समाप्त होने के बाद जयप्रकाश नारायण ने ज़ोर दिया कि वो कांग्रेस के ख़िलाफ़ बनाए जा रहे चुनावी गठबंधन का हिस्सा बनें.